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परिचय

परम संत सतगुरु सुन्दरदासजी महाराज ने इस आश्रम की स्थापना सन् 1962 में की। आपका जन्म दब्बावाली ग्राम पंजाब में जन्माष्टमी के दिन सम्वत् 1949 में हुआ। आपके पिताजी का नाम श्री परमानन्द उर्फ मस्तान सिंह व माताजी का नाम श्रीमती हरनाम कौर था ।

        आपलोग संत सतगुरु हुजुर महाराज के शिष्य थे। सुन्दरदासजी महाराज बचपन से ही हुजुर महाराज की शरण में आ गये थे। आपने विद्या अध्यापन नहीं किया। परमार्थ में रुचि होने की वजह से सत्सँग से ही नाता रखा। आपके एक भाई व एक बहन थीं। भाई छोटे श्री गुरु चरण दास व बहिन का नाम गुरु प्यारी था।

        हुजुर महाराज के चोला छोड़ने के पश्चात् आप लालाजी साहब के पास रहने पीपलमंडी आ गये। आपको पहलवानी का बड़ा शौक था। इसी वजह से आपका शरीर हृष्ट पुष्ट था। आप सेवा के लिये बराबर स्वामी बाग़ (आगरा) जाया करते थे। पीपलमंडी में भी आप सभी सत्संगी भाई बहनों की तहे दिल से सेवा किया करते थे। आपने विरक्त आश्रम अपनाया ।

        स्वामी बाग़ (आगरा) की तरफ से आपको राजस्थान में बनाये आश्रमों से भेंट इकट्ठी करने व सत्सँग के लिये भेजा जाता था। इसी दरम्यान आपका जाना ग्राम - छापर, जिला - चुरु में भी हुआ करता था। सन् 1948 में आपने वहां सत्सँग के बीच कहा था कि एक बनिये का लड़का यहाँ बड़ा होनहार है और कुछ ही दिन बाद कालूरामजी पेड़ीवाल सुपुत्र श्री रामचन्द्रजी पेड़ीवाल सत्सँग में आये। आने के साथ ही संतमत की परिपाटी के अनुसार गुरु व गुरुमुख का आमना सामना हुआ। कालूरामजी को सत्सँग भजन का बड़ा शौक था। आप मूलतः सनातन धर्म से जुड़े हुए थे। आपके चाचानी श्री चतुर्भुज जी पेड़ीवाल को गीता अध्ययन का बड़ा शौक था। आप बराबर सुनने वहाँ जाया करते थे। इसी बीच जब आपने सुना कि कोई महात्मा छापर के राधास्वामी आश्रम में पधारे हुए हैं, तो आपने निःसंकोच वहाँ जाना तय किया । जिज्ञासुओं की यही पहिचान है कि वे किसी सीमा में नहीं रहते।

        तत्पश्चात कालूरामजी का बराबर मेल जोल महाराज सुन्दरदास जी से होता रहता था। पत्र व्यवहार भी होता था। आप आगरा भी जाया करते थे। महाराज की खुराक अच्छी थी, परन्तु पीपलमंडी में उन्हें भरपेट भोजन नहीं मिल पाता था। अतः कालूरामजी उन्हें कुछ भेंट दे दिया करते थे। जब वहाँ (पीपलमंडी में) लोगों को पता लगा कि महाराज भेंट लिया करते हैं, तो वहां से व्यवस्थापकों ने उन्हें निकल जाने की आज्ञा दी।

        महाराज ने चुपचाप वहाँ से प्रस्थान कर लिया। यहाँ तक कि कालूरामजी को भी उन्होने सूचित नहीं किया। अज्ञातवास में उन्होंने राजस्थान में अरावली पर्वतों की श्रृंखला को चुना। ध्यान भजन में लीन रहने लगे। इसी बीच राधास्वामी दयाल ने उन्हें अंत: प्रेरणा की कि जयपुर जिले में ग्राम चौमूँ के पास बाबा मेघादासजी की कुटिया के पास जहाँ हुजूर महाराज एक बार घोड़े की सवारी करते हुए पोस्टमास्टर की सेवा के दौरान ठहरे थे, वहाँ आश्रम बना कर सत्सँग का बेड़ा लगायें व जीवों का काम बनायें। तत्पश्चात इस बात की इत्तिला उन्होने अपने गुरुमुख शिष्य कालूरामजी को दी। यहाँ पर एक बात बतानी उचित लगती है, कई शिष्य आगरा से ही उन्हें यानि महाराज को गुरु मानने लगे थे।

        महाराज की खबर मिलते ही कालूरामजी ने चौमूँ प्रस्थान किया। यहाँ पहुँच कर कुछ दिन मेघादासजी की कुटिया में ही अपनी कुटिया बना कर महाराज ने निवास किया। उसी से सटी हुई जमीन खरीद कर राधास्वामी बाग की स्थापना सन् 1962 में की। प्रमुखत: भजन घर एवम् सत्सँगीयों के ठहरने के लिये कुछ कमरे बनाये गये। उस समय यह इलाका एकदम वीरान हुआ करता था । पतली सी एक सड़क थी। एक बस सुबह जयपुर जाया करती थी व शाम को वापस आया करती थी। उस वक्त महाराज ने कहा था कि "देखना यहाँ गाड़ियों की कतार लगा करेगी । जयपुर चौमूँ एक हो जायेगा।"

        कौन जानता था कि, ये बात भी सच हो सकती है। परन्तु संतों के वचन कभी मिथ्या नहीं हुआ करते। और आज उनकी एक एक बात सच होकर सामने दिखाई देती है ।

         समय समय पर महाराज सत्संग के लिये कलकत्ता भी पधारा करते थे। कालूरामजी ने एक बार महाराज से अनुग्रह किया कि, आम सत्संग बड़ा हॉल लेकर करवाने की इच्छा है। महाराज कलकत्ता के बगल में ही लिलुआ में ठहरा करते थे। महाराज ने स्वीकृति प्रदान कर दी। मालिक की मौज को कोई नहीं समझ सकता। दोपहर 3 बजे से सत्संग का आयोजन था। मालिक को अपने गुरुमुख को दुनिया के सामने प्रकट करना था। रास्ता जाम होने की वजह से महाराज लिलुवा से बड़ा बाजार समय पर नहीं पहुँच पाये। काफी तादाद में जीव इकट्ठे हो चुके थे। निर्धारित समय पर कालूरामजी ने सत्संग प्रारंभ किया। लगातार एक घंटे तक प्रवचन दिया । बस वहीं से मालिक ने उनसे सत्संग की सेवा लेनी शुरु कर दी। महाराज ने अपने सामने ही उनके मार्फत जीवों को उपदेश दिलाना व जगह जगह पर सत्संग कराना शुरु करवा दिया।

        महाराज की पकड़ हिन्दी, उर्दु व गुरुमुखी भाषा पर काफी अच्छी थी। आपने कुछ एक भजन भी तैयार किये, जिसे पढ़ कर हम सब परमार्थी भाईबहन लाभ अर्जित करते हैं। विद्यालय न जाने के बावजूद भी आपको अध्ययन का बड़ा शौक था। प्रायः सभी धर्मों की पुस्तकों का अध्ययन किया करते थे। कोई भी बात अच्छी लगती तो निशान लगा कर उसको उतरवाया करते थे। परमार्थ के साथ साथ धार्मिक कृत्य भी बहुत प्रिय थे। आपने आश्रम के बगल में ही एक प्राइमरी स्कूल कक्षा 5 तक व एक सेकेन्डरी स्कूल कक्षा 10 तक की बनवा कर सरकार को सुपुर्द की । आश्रम के बाहर ही औषधालय व प्याऊ भी बनवाया गया था। फिलहाल ये दोनों सेवायें बन्द हो चुकी हैं।

        आश्रम में सिर्फ और सिर्फ परमार्थी गतिविधियां ही चलती हैं। जो समय भजन, ध्यान व सत्संग का उन्होंने निर्धारित किया था, वह आज तक मालिक की दया से चालू है ।

 

प्रात: 4 बजे से 5 बजे तक ध्यान।

5 बजे से 5.30 बजे तक प्रार्थना।

8 बजे से 9 बजे तक सत्संग।

दोपहर 3 बजे से 4 बजे तक ध्यान।

4 बजे से 5 बजे तक सत्संग।

रात्रि 8 बजे से 9 बजे तक सत्संग।।

आपके चेहरे पर इतना रौब व तेज था कि जब आप प्रातः घूमने बाहर जाया करते थे, तो जो भी गाड़ी पास से गुजरती, रुक कर सादर प्रणाम करके ही आगे बढती ।

 

"मुखड़ा सुहावन कद्द सीधा,

चाल अति शोभा भरी।

तेज रोशन सीने अन्दर,

मन को घायल कर रहा।"

 

        जिन भी सत्संगी भाई बहनों ने उनकी नजदीकी ली, एक से एक अनुभव उनके पास परमार्थी दात के रुप में बतौर खजाने के हैं।

        चूँकि आश्रम मुख्य हाई-वे पर है, अतः कई महानुभूतियां अक्सर आश्रम में पधारा करती थीं। उनमें से मुख्यत: जैन धर्माचार्य श्री तुलसी मुनि, राधास्वामी सत्संग दिनोद के आचार्य ताराचन्दजी इत्यादि उनसे परमार्थी मशविरा किया करते थे। उन्हीं के मशविरे के बतौर आज जैन धर्म में भी ध्यान योग बतलाया जाता है ।  

        आपका कहना था कि "मैं तो कुछ एक जीवों के लिये आया हूँ, सत्संग की सेवा कालूराम करेगा।" उन्ही की उपस्थिति में ही सत्संगी भाई बहन छोटे महाराज कालूरामजी को ही बतौर गुरु मानते हुए, सत्संग का लाभ लेने लगे थे। हम सभी उन्हें महाराज के नाम से संबोधित किया करते थे।

        25 नवम्बर 1974 से ही आपने आश्रम में जहाँ अमरुद के पेड़ हुआ करते थे, उनमें से कुछ को कटवा कर जमीन खाली करवा दी थी। 6 दिसम्बर 1974 की रात्रि की सत्संग व प्रार्थना के पश्चात् आपने निज धाम गमन कर लिया। आपके देह त्याग के पश्चात् आपका भंडारा दिनाक 25 दिसम्बर 1974 को किया गया। उसी दिन छोटे महाराज कालूरामजी को सभी सत्संगी भाई बहनों ने मुख्य गद्दी पर विराजने की विनती की। आपने जीवों की पुकार को मानते हुए संस्था प्रधान का पद ग्रहण किया। जैसा कि ऊपर आपके बारे में काफी कुछ उल्लेख हुआ है, आपने अपना जीवन निःस्वार्थ भाव से सिर्फ और सिर्फ परमार्थ को ही सुपुर्द किया।

आपका जन्म माघ सुदी 11 सम्वत् 1987 को ग्राम छापर में हुआ। आपके पिताजी का नाम श्री रामचन्द्रजी पेड़ीवाल व माताजी का श्रीमती लक्ष्मी देवी था। दोनों बड़े ही धर्मावलम्बी व सात्विकी रहनी वाले थे। आपके दो भाई व एक बहन थीं। आपने 18 वर्ष की आयु में बड़े महाराज से उपदेश लेकर शब्द की कमाई शुरू कर दी थी।

        आपकी धर्मपत्नी श्रीमती कस्तूरी देवी बड़ी ही दयालु व करुणा की मूर्ति थी। आपने भी अपनी पूरी जिन्दगी महाराज के साथ सत्संग व सत्संगियों के नाम की। हम आज तक उनकी दयालुता व रहम दिली को नहीं भूल पाते। आपके चार बच्चे, 2 लड़के व 2 लड़कियां हुई। 1) रामकुमार 2) अगम 3) शान्ति कुमार व 4) पुष्पा ।

        महाराज जब तक अपने व्यवसाय में थे, एकछत्र आधिपत्य के साथ बड़ी ही लगन से काम काज किया करते थे । जो भी सहचर थे, आजतक जिन्होंने कि उनका साथ पाया, उन्हें उनकी साहसिक गतिविधियों व नेक विचार के लिये स्मरण करते हैं। आपकी मूल रुचि तो परमार्थ ही थी, परन्तु बड़े महाराज सुन्दरदासजी की आज्ञा से गृहस्थ व व्यवसाय किया करते थे। बराबर सत्संग व नजदीकी प्राप्त करने का आग्रह बड़े महाराज से करते रहते थे।

        अंततः 1970 में बड़े लड़के रामकुमार की शादी के पश्चात् आपने बड़े महाराज से विनती की कि अब और काम काज में मन नहीं लगता, सत्संग सेवा में जोड़िये। बड़े महाराज ने विनती स्वीकार की। मात्र 40 वर्ष की उम्र में आपने अपने जमे जमाये व्यवसाय को ठुकराकर आश्रम में रहना कुबूल किया। बड़े महाराज व सभी सत्संगियों की सेवा खूब सेवा-भाव से किया करते थे। आप तो बस प्रेम की मूरत ही थे। सभी जीवों पर प्रेम की अपार दौलत लुटाते रहते थे।

बड़े महाराज की आज्ञा से जगह जगह सत्संग के लिये जाना होता था। जिनमें से मुख्यतः कलकत्ता, सिलीगुड़ी, झाड़ग्राम, बहरागोड़ा, फतेहपुर, लक्ष्मणगढ़, कालवाड़ व डुंगरवाला इत्यादि थे। जीवों को सत्संग का अत्यधिक लाभ मिला करता था। आपके प्रवचनों की जो झड़ी हुआ करती थी, मंत्र मुग्ध कर देती थी। ऐसा लगता था, जैसे कि समय ही रुक गया। भजन भी बड़े ही सुरीले सुनने को मिला करते थे।

        चुँकि बचपन से ही आपको सत्संग व भजन का शौक था, आप प्राय: भजनों का संकलन करते रहते थे। उन्ही संकलनों को आपने 'संत भजनावली' पुस्तक में मय बड़े महाराज सुन्दरदासजी के बनाये हुए भजनों को प्रकाशित किया, जो कि सभी सत्संगी भाई बहनों की प्रिय पुस्तक है।

        बड़े महाराज की उपस्थिति में ही आपने सर्वप्रथम सभी सत्संगी भाई बहनों के लाभार्थ 'राधास्वामी वचन संग्रह’ पुस्तक भी प्रकाशित की थी।

        आपकी जीवन शैली तो आम जीवों से बिल्कुल भिन्न थी। साफ दर्शता था कि, आप इस मंडल के हैं ही नहीं। प्रातः 3 बजे से रात्रि 10 बजे तक सिर्फ मालिक की सेवा में आपने अंतघड़ी तक अपने जीवन को निसार किया। एक एक सत्संगी से आपका जुड़ाव इस कदर था कि, जब भी किसी को कोई तकलीफ होती तो आपको तुरन्त इस बात का अहसास हो जाता था। आप नजदीकी सत्संगीयों से कह भी दिया करते थे कि, किसी पे मुश्किल आन पड़ी है। कई बार तो नकसीर तक निकल पड़ती थी ।

        प्राणी मात्र के प्रति जो दया आपमें थी, वह काबिले तारीफ थी। आश्रम के आस पास, चाहे कोई सतसँगी हो या नहीं, कष्ट में देख कर आर्थिक, शारीरिक सेवा से सहयोग प्रदान करते रहते थे। पास के ही जैतपुरा ग्राम में भयंकर आग लग गई थी, ब्राह्मणों के कई घर जल गये थे। आपने आश्रम से मदद देकर उनके पक्के मकान तक बनवा दिये थे। उसी गाँव में पीने के पानी की टंकी भी बनवाई गई थी। छापर गाँव में भी स्कूल का निर्माण कराया गया था।

'जीव दया तूँ पाल' तेरे भले की कहूँ ।'

       

       इसको चरितार्थ करते थे। सन् 1982 में जयपुर इलाके में बाढ़ का प्रकोप हुआ था। आश्रम से अनाज, कपड़े इत्यादि ट्रक भर भर कर भिजवाये जाते थे। मालिक ने इसी सेवा की बदौलत बानियों की नई श्रृंखला भेजी। लीला देखने ही के काबिल थी । न दिन का पता न रात का। कभी भी किसी भी समय मालिक शब्द भेजते रहते थे, और आप कलम बद्ध करते रहते थे। प्रीति पत्र भाग 1 व 2, प्रीतिबानी भाग 1 से 8, राधास्वामी छन्द बन्द, घट की पोथी सार बचन माला, सत्य अनुभव एवम् सत्सँग की झाड़ियाँ, ये ग्रन्थ जीवों के लिये मालिक की दात के रुप में प्रकाशित किये गये।

        काफी नये सत्सँगी मालिक की प्रेरणा से सत्संग से जुड़े । खासकर सूरत व खंडवा से । आपका जाना भी इन इलाकों में काफी होने लगा। काफी ऊँचे दर्जे की सत्सँग हुआ करती थी। एक बार खंडवा के किसी सत्संगी ने ठाना कि मुझे 15 सवालों के जवाब चाहिए। महाराज को किसी ने बताया नहीं। बस सत्सँग शुरु होने की देर थी, सिलसिलेवार उन सभी 15 प्रश्नों के उत्तर उस सत्संग में मालिक ने दिये। आपको यूँ लगता था कि कोई भी जीव अभागा व दूर क्यूँ रहे। इसलिये कई एक मरतबा सत्संग के दरमियान यहाँ तक कह जाते थे कि, “मैं ही कबीर व मैं ही हुजूर था।"

 'परगट में होय हरक्कत'

        बानियों में भी कई शब्दों में ऐसा इजहार आपने किया था। संतो के प्रगट रूप में आने से मालिक की ओर से जल्द बुलावा आ जाता है। हम सब जीवों का दुर्भाग्य। मई 1987 में आपको जुबान पर लकवे की शिकायत हो गई । आपको समझ आ गया कि, अब जल्द जाना पड़ सकता है |

अत: आपने बाग (आश्रम) के सभी पेपर दुरुस्त किये। जयपुर साईड का एक हिस्सा जिधर बाउन्ड्री दी हुई है, वह पारिवारिक हिस्सेदारी में आपने अपनी धर्मपत्नी व बड़े पुत्र रामकुमार व छोटे पुत्र शान्तिकुमार के नाम किया। चौमूँ साइड का हिस्सा जो धर्मशाला के नाम से जाना जाता है उसे राधास्वामी स्मृति भवन ट्रस्ट के नाम से कर दिया। दोनों साइड के मध्य भाग के हिस्से को आश्रम के रुप में अंकित किया, जो कि उनके अपने नाम से था, उसे कस्तूरी देवी के नाम से कर दिया। 15 मई 1987 को आपने अपने छोटे पुत्र शान्तिकुमार को बुला कर लिखित तौर पर यह आदेश दिया कि आश्रम की व्यवस्था करे। सत्संग, भजन, ध्यान व सेवा स्वयं भी करे व सत्सँगीयों से भी करवाये ।

        आपने भी बिमारी आने से पेश्तर बड़े महाराज की समाध के बगल के कुछ पेड़ कटवाये और कहा कि यहाँ गुलाब बाड़ी बनेगी। पर किसे पता था कि आपने अपने लिये वह जगह निर्धारित की थी।

        28 सितम्बर 1987 को तबियत खराब हुई, तो जयपुर डाक्टरों को दिखाया, जहाँ बताया गया कि, अब ज्यादा दिन का रहना नहीं होगा। इलाज के लिये बम्बई भी ले जाया गया। परन्तु मालिक की मौज के आगे किसकी चलती है। वहाँ से भी डाक्टरों ने यही सलाह दी कि, आप अपने आश्रम इन्हे ले जावें । अंतत: 15 अक्टूबर 1987 को सायंकाल आपने हम सबको अकेला छोड़ निज धाम गमन कर लिया।

        चुँकि, बड़े महाराज व महाराज जड़ता के पूर्णतया खिलाफ थे, अतः जहाँ बड़े महाराज व महाराज का दाह संस्कार किया गया, वहाँ समाध न बनवा कर मात्र चबुतरों का निर्माण करवाया गया। जयपुर साइड का चबूतरा बड़े महाराज परम संत सत्गुरु सुन्दरदासजी का व चौमूँ साइड का चबूतरा महाराज संत सत्गुरु कालूरामजी का है।

वर्तमान में जैसा कि महाराज ने आदेश दिया था कि 'शान्तिकुमार आश्रम की व्यवस्था व देखरेख करेगा एवम् सत्संग, ध्यान, भजन स्वयं भी करेगा व करवायेगा' उनकी दया से आजतक आश्रम व सत्संगी भाई बहनों की अपार श्रद्धा मालिक के वचनों पर साफ दिखाई देती है। सभी ने सहर्ष शान्तिकुमारजी की सानिध्यता में परमार्थी लाभ प्राप्त करना स्वीकार किया।

        शान्ति कुमार जी का जन्म छापर ग्राम में पौष सुदी 5 सम्वत् 2013 को हुआ। आपके पिताजी संतसत्गुरू कालूरामजी व माताजी श्रीमती कस्तूरी देवी थीं। आपने बचपन से ही चूँकि संतों की शरण धारी, अतएव आपमें परमार्थी विचार धारा का भरपूर प्रभाव है। बचपन से ही पाठ करना, भन्डारे लेना, सेवा करना इत्यादि आपकी जीवन शैली में शुमार है। आपने B.Com तक की शिक्षा ग्रहण करी। चूँकि कक्षा 8 से कक्षा 11 तक का अध्ययन आपने आश्रम में रहते हुए किया था, अतः परम संत सतगुरु सुन्दरदासजी का सानिध्य आपको काफी प्राप्त हुआ। एक मर्तबा गुरु पूर्णिमा के भंडारे पर पाठ के बीच में महाराज कालूरामजी को खाँसी आ गई थी, तो आपने पाठ को बखूबी पूरा किया। उसी समय बड़े महाराज ने कहा था कि, ये यानि शान्तिकुमार सम्हाल लेगा। किस बात का क्या अर्थ होता है, जीव नहीं समझ सकता । समय आने पर इन बातों का अर्थ समझ आता है।

        एक बार कलकत्ता में आपको निमोनिया हो गया था, तो महाराज आपको चौमूँ लेकर आ गये। उनकी पूरी देखभाल से बिमारी ठीक हुई। इसी दरमियान महाराज ने आपसे "सार बचन बार्तिक" भाग पहला का हिन्दी अनुवाद करवाया- 'मालिक की प्रेरणा व जीव की कलम'। इतनी सहज भाषा में इसका अनुवाद हुआ कि, उसे पढ़कर आज सभी सत्संगी लाभान्वित होते हैं।

        आप मात्र 15 वर्ष की आयु में 11 वीं की परीक्षा देकर कलकत्ता व्यवसाय से जुड़ गये थे। तभी से वहाँ प्रातः 6 से 7 सत्संग पाठ किया करते थे।

जब भी मौका लगता बराबर आश्रम आकर सत्संग लाभ लेने का प्रयत्न किया करते थे। बड़े महाराज का जब निज धाम गमन हुआ, तब भी आप आश्रम में ही थे। आपका वापस जाने का प्रोग्राम था, परन्तु बड़े महाराज ने टिकट कैन्सिल करवा कर रोक लिया था। मालिक की क्या मौज थी, यह तो हम सब जीवों की समझ से बाहर ही है। बाद में उसका मर्म समझ में आया ।

        आपका विवाह श्रीमती सुमन देवी से सन् 1977 में हुआ। आपके 3 संताने हैं। दो पुत्र क्रमशः सुमित व संत प्रसाद एवं एक पुत्री श्रद्धा है। जब महाराज कालुरामजी ने निज धाम गमन किया, तब इनकी यानि बच्चों की उम्र 9, 6 व 3 वर्ष थी। आपकी उम्र भी मात्र 30 वर्ष थी। जब महाराज ने आदेश दिया था कि सत्संग की सेवा करनी है, तो आपने कहा था कि यह कैसे मुमकिन होगा ? महाराज ने दिलासा दी कि "तुम्हें कुछ नहीं करना है, मालिक अपने आप करवायेगा।” बस उसी विश्वास के बल पर आपने उनके आदेश को स्वीकार किया। आपको महाराज पर अटूट् श्रद्धा व विश्वास था। आपका कहना है कि, जब संत ज्ञानेश्वर ने एक गधे के मुँह से वेदों का उच्चारण करवा दिया तो मालिक चाहे तो कुछ भी करवा सकता है।

        आपका निवास मुख्यतः कलकत्ता ही हुआ करता था। व्यवसाय के साथ साथ वहाँ प्रातः सत्संग के अतिरिक्त सप्ताह में तीन दिन मंगलवार, बृहस्पतिवार व रवीवार को दोपहर में 3 बजे से 4 बजे तक का सत्सँग भी शुरु किया, ताकि आस पास के सत्संगियों को भी सत्सँग का लाभ मिल सके। काम काज के बीच दोपहर में सत्सँग के लिये निकल कर आना भी मालिक की मौज से ही हो पाता था। आश्रम में शुरु में गुरु पुर्णिमा व जन्माष्टमी के भंडारे होते थे। उनमें भी बराबर आप सपत्नीक बच्चों की पढ़ाई के बीच भी व्यवस्था करके बिन फेल नागा आया करते थे।

        सन् 2011बसन्त पंचमी पर राधास्वामी मत के 150 वर्ष पूर्ण होने के उपलक्ष्य में आश्रम में विशेष भंडारा का आयोजन हुआ था। आश्रम की सजावट देखने के काबिल थी। सन् 2012 में हमारे आश्रम के 50 वर्ष पूर्ण हुए थे। इस उपलक्ष में बड़ी ही धूम-धाम से गुरु पूर्णिमा के भंडारे पर सभी सत्सँगी भाई बहन मिल कर स्वर्ण जयंती वर्ष का पर्व मनाये थे। उसी समय 'स्मारिका' नामक पुस्तक प्रकाशित की गई थी। उसमें बताया गया है कि 6 दिसम्बर का भंडारा बहरागोड़ा, 25 दिसंबर का भंडारा बेलाकोबा व बसंत पंचमी से महाराज के जन्मदिन माघ सुदी 11 तक का भंडारा झाड़ग्राम में बराबर किया करते थे। चारों तरफ से जिज्ञासु सत्संगी भंडारे का लाभ लिया करते थे।

संतमत के अनुसार फर्ज का निर्वाह भी आपने बखूबी किया। तीनों बच्चों की शादियाँ व रहने के लिये उचित व्यवस्था करने के पश्चात् अब आप सपत्नीक अपना अधिक से अधिक समय सत्संग व सेवा में लगा रहे हैं। महाराज के चोला छोड़ने के पश्चात् संतमत के अनुसार जो बीजा मालिक ने डाला था वह अब ऐसा लगता है, फुर कर आ रहा है। सत्सँगियों की आश्रम में आने की तादाद बढ़ने पर व्यवस्था अनुरूप इनके ठहरने हेतु 16 कमरों का निर्माण हुआ। फिर भंडारे पर सत्सँग की जगह कम होने लगी तो भंडारे की सत्संग हेतु बड़े सत्सँग घर का निर्माण हुआ जहाँ तकरीबन 1200 सत्सँगी एक साथ बैठ सकते हैं। तत् पश्चात् जब भी आप आश्रम आते तो जिज्ञासु सत्सँगी नित्त में भी कई आने लगे, जिससे पुराना जो भजन घर था उसमें बैठने में असुविधा होने लगी। तब उसी जगह पुनः निर्माण विस्तृत भजन घर का करवाया गया, जहाँ 150 से 200 सत्सँगी बैठ कर सत्सँग का लाभ पा सकते हैं। मालिक की ही लीला, भंडारे पर भी सत्सँगी भाई बहन चारों तरफ से तादाद में आने लगे तो उनके ठहरने में अव्यवस्था लगने लगी तो सत्सँगी आवास का निर्माण करवाया गया जहाँ लगभग 200 सत्संगी ठहर सकते हैं। आश्रम की सफाई सुन्दरता व व्यवस्था काबिले तारीफ है। सभी सत्सँगी भाई बहन बढ़ चढ़ कर सेवा में उचित हिस्सेदारी दिया करते हैं।

        आपका इन दिनों कलकत्ता की जगह और जगहों पर सत्सँग के निमित्त आना जाना लगा रहता है। खंडवा भी जाना होता है। आपका जीवन अब सभी सत्सँगी भाई बहनों को सत्संग का अधिक से अधिक लाभ देने में लगा रहता है।

    पिछले कई वर्षों से Internet के जरिये facebook, youtube व watsapp पर Radhaswami satsang के ज़रिये नित्त का सत्सँग भी प्रसारित हो रहा है। सभी  सतसंगी भाई बहन व जिज्ञासु इसका भरपूर लाभ ले रहे हैं।

       मालिक की यूँ ही हम सब पर दया मेहर बनी रहे व सत्सँग प्रवचन का लाभ आपके जरिये हमें मिलता रहे, हम सब सत्संगी भाई बहन राधास्वामी दयाल से यही विनती करते हैं ।

 

राधास्वामी

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